अभी हमारे देश में चुनाव का माहौल हैं चारो तरफ जनप्रतिनिधि और उनकी प्रचार गाड़िया चौक चौराहे तथा मोहल्ले में घूम रही हैं और अपना मत देकर जिताने की बात कर रही हैं और इसी चुनावी रंग में रंगे मीडिया की साथी भी हैं जो अपने पुरे दल बल के साथ गांव – गांव, शहर – शहर घूम रहे हैं और जनता की मत जानने की कोशिश कर रहे हैं। ऐसे माहौल में एक चर्चा आम हो गयी हैं जो विपक्ष द्वारा जुमला फैलाया जा रहा है की भारत के संविधान पे खतरा हैं तो ऐसे माहौल में क्या यह बस विपक्ष द्वारा कहा जा रहा एक जुमला हैं या इसमें कुछ सचाई भी हो सकती हैं ?
इसपे सभी पार्टियों की दलील अलग अलग आ रही हैं अब बात अगर हम करे की वास्तव में ऐसा कुछ हो सकता हैं क्या ? तो आपको चिंतन की आवश्यकता हैं ना की चिंता की।
अपने देश को आज़ाद हुए 77 साल हो गए पर हर आम चुनाव में संविधान पे खतरा वाला जुमला सुनने में आ ही जाता है, ऐसे में एक नागरिक होने के नाते हमें ये जानने का अधिकार हैं की आखिर ऐसा संभव भी हैं या फिर बस यह जुमला ही हैं।
तो चलते हैं हम आपतकाल के दौर में जिसे स्वतंत्र भारत का काला अध्याय माना जाता हैं उस समय राजनीतिक विरोधियों को उनके घरों, ठिकानों से उठाकर जेलों में डाल दिया गया था. अभिव्यक्ति की आजादी पर सेंसरशिप का ताला जड़ दिया गया था.
पत्र-पत्रिकाओं में वही सब छपता और आकाशवाणी पर वही प्रसारित होता था जो उस समय की सरकार चाहती थी. प्रकाशन-प्रसारण से पहले सामग्री को सरकारी अधिकारी के पास भेज कर उसे सेंसर करवाना पड़ता था.
12 जून 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति जगमोहन लाल सिन्हा का ऐतिहासिक फ़ैसला आया था जिसमे जस्टिस सिन्हा ने अपने फ़ैसले में रायबरेली से इंदिरा गांधी के लोकसभा चुनाव को चुनौती देने वाली समाजवादी नेता राजनारायण की याचिका पर फैसला सुनाते हुए प्रधानमंत्री के संसदीय चुनाव को अवैध घोषित कर दिया. उनकी लोकसभा सदस्यता रद्द करने के साथ ही उन्हें छह वर्षों तक चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य भी घोषित कर दिया था.
और 24 जून को सुप्रीम कोर्ट ने भी इस फ़ैसले पर मुहर लगा दी थी, हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें प्रधानमंत्री बने रहने की छूट दे दी थी. वह लोकसभा में जा सकती थीं लेकिन वोट नहीं कर सकती थीं तब इंदिरा गांधी ने अपने छोटे बेटे संजय गांधी, कानून मंत्री हरिराम गोखले और पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे जैसे कुछ ख़ास सलाहकारों से मंत्रणा के बाद ‘आंतरिक उपद्रव’ की आशंका के मद्देनजर संविधान की धारा 352 का इस्तेमाल करते हुए आधी रात को तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से देश में ‘आंतरिक आपातकाल’ लागू करने का फरमान जारी करवा दिया था. जिसके बाद आमजन की स्वतंत्रता और अधिकार छीन लिए गए थे और मीसा एक्ट का दुरूपयोग कर के हजारों नेताओ और आमलोगों को भी गिरफ्तार कर लिया गया था।
तब हमारे देश के लोग अपनी स्वतंत्रता और अधिकार को बचाने के लिए अपने संविधान की प्रस्तावना जिसकी शुरआत “हम भारत के लोग” से है उससे प्रेरणा लेकर देश भर के छात्र-युवा 72 साल के बुजुर्ग समाजवादी-सर्वोदयी नेता, लोकनायक जयप्रकाश नारायण के पीछे अहिंसक और अनुशासित तरीके से लामबंद होने लगे थे जो तत्कालीन सरकार को अंदर से झकझोर दी थी और अगले आम चुनाव में इंदिरा गाँधी को कुर्सी से उतार कर नई सरकार बनाने में कामयाब हुयी थी।
और दरअसल, आपातकाल एक ख़ास तरह की राजनीतिक संस्कृति और प्रवृत्ति का परिचायक था जिसे लागू तो इंदिरा गांधी ने किया था, लेकिन बाद के दिनों-वर्षों में एकाधिकारवादी प्रवृत्ति कमोबेश सभी राजनीतिक दलों और नेताओं में देखने को मिलती रही है.
ऐसे में अगर बात की जा रही हो संविधान बदलने का तो यह कोई नई बात नहीं हैं।
आपतकाल की घटना को ध्यान में रखते हुए सारी राजनैतिक दलों और लोगो को सोचना चाहिए की भविष्य में अगर कोई इंदिरा बनने का कोशिश करेगा तो उसी भविष्य में एक लोकनायक जयप्रकाश नारायण भी होगा जो संविधान के मूल भाव को बचाये रखने के लिए अपने जान की परवाह किये बिना संघर्ष करने को तैयार रहेगा।